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Saturday, 14 January 2017

भारतीय राजनीति में गांधीजी का अभ्युदय(चम्पारण सत्याग्रह,अहमदाबाद मिल हड़ताल,खेड़ा सत्याग्रह 1918,रौलेट एक्ट ,जलियांवाला बाग हत्याकांड)


गांधीजी की भारत वापसी
गांधीजी, जनवरी 1915 में भारत लौटे। दक्षिण अफ्रीका में उनके संघर्ष और उनकी सफलताओं ने उन्हें भारत में अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया था। न केवल शिक्षित भारतीय अपितु जनसामान्य भी गांधीजी के बारे में भली-भांति परिचित हो चुका था। भारत की तत्कालीन सभी राजनीतिक विचारधाराओं से गांधीजी असहमत थे। उन्होंने कहा कि इन परिस्थितियों में राष्ट्रवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने का सर्वोत्तम मार्ग है- अहिंसक सत्याग्रह। उन्होंने स्पष्ट शब्दों में घोषित किया कि जब तक कोई राजनीतिक संगठन सत्याग्रह के मार्ग की नहीं अपनायेगा तब तक वे ऐसे किसी भी संगठन से सम्बद्ध नहीं हो सकते।
रौलेट सत्याग्रह प्रारम्भ करने के पहले, 1917 और 1918 के आरम्भ में गांधीजी ने तीन संघर्षों- चम्पारण आंदोलन (बिहार) तथा अहमदाबाद और खेड़ा (दोनों गुजरात) सत्याग्रह में हिस्सा लिया। ये तीनों ही आंदोलन स्थानीय आर्थिक मांगों से सम्बद्ध थे। अहमदाबाद का आंदोलन, औद्योगिक मजदूरों का आंदोलन था तथा चम्पारण और खेड़ा किसान आंदोलन थे।
चम्पारण सत्याग्रह 1917
  • प्रथम सविनय अवज्ञा: चम्पारण की समस्या काफी पुरानी थी। 19वीं शताब्दी के प्रारम्भ में गोरे बागान मालिकों ने किसानों से एक अनुबंध कर लिया, जिसके अंतर्गत किसानों को अपनी भूमि के 3/20वें हिस्से में नील की खेती करना अनिवार्य था। यह व्यवस्था ‘तिनकाठिया पद्धति’ के नाम से जानी जाती थी।
  • 19वीं सदी के अंत में जर्मनी में रासायनिक रंगों (डाई) का विकास हो गया, जिसने नील की बाजार से बाहर खदेड़ दिया। इसके कारण चम्पारण के बागान मालिक नील की खेती बंद करने की विवश हो गये। किसान भी मजबूरन नील की खेती से छुटकारा पाना चाहते थे। किन्तु परिस्थितियों को देखकर गोरे बागान मालिक किसानों की विवशता का फायदा उठाना चाहते थे। उन्होंने दूसरी फसलों की खेती करने के लिये किसानों को अनुबंध से मुक्त करने की एवज में लगान व अन्य करों की दरों में अत्याधिक वृद्धि कर दी। इसके अतिरिक्त उन्होंने अपने द्वारा तय की गयी दरों पर किसानों को अपने उत्पाद बेचने के लिये बाध्य किया। चम्पारण से जुड़े एक प्रमुख आंदोलनकारी राजकुमार शुक्ल ने गांधीजी को चम्पारण बुलाने का फैसला किया।
  • गांधीजी, राजेन्द्र प्रसाद, ब्रीज किशोर, मजहर उल-हक़, महादेव देसाई, नरहरि पारिख तथा जे.बी. कृपलानी के सहयोग से मामले की जांच करने चम्पारण पहुंचे। गांधीजी चंपारण के गॉंव में घूमते व किसानों की समस्या को सुनते |
  • इस बीच सरकार ने सारे मामले की जांच करने के लिये एक आयोग का गठन किया तथा गांधीजी को भी इसका सदस्य बनाया गया। गांधीजी, आयोग को यह समझाने में सफल रहे कि तिनकाठिया पद्धति समाप्त होनी चाहिये। उन्होंने आयोग को यह भी समझाया कि किसानों से पैसा अवैध रूप से वसूला गया है, उसके लिये किसानों को हरजाना दिया जाये।
  • बाद में एक और समझौते के पश्चात् गोरे बागान मालिक अवैध वसूली का 25 प्रतिशत हिस्सा किसानों को लौटाने पर राजी हो गये। इसके एक दशक के भीतर ही बागान मालिकों ने चम्पारण छोड़ दिया। इस प्रकार गांधीजी ने भारत में सविनय अवज्ञा आंदोलन का प्रथम युद्ध सफलतापूर्वक जीत लिया।
अहमदाबाद मिल हड़ताल 1918- प्रथम भूख हड़ताल
  • चम्पारण के पश्चात् गांधीजी ने अहमदाबाद मिल हड़ताल के मुद्दे पर हस्तक्षेप किया। यहां मिल मालिकों और मजदूरों में प्लेग बोनस को लेकर विवाद छिड़ा था। गांधीजी ने मजदूरों को हड़ताल पर जाने तथा 35 प्रतिशत बोनस की मांग करने को कहा। जबकि मिल मालिक, मजदूरों को केवल 20 प्रतिशत बोनस देने के लिये राजी थे।
  • गांधीजी ने मजदूरों को सलाह दी कि वे शांतिपूर्ण एवं अहिंसक ढंग से अपनी हड़ताल जारी रखें। गांधीजी ने मजदूरों के समर्थन में भूख हड़ताल प्रारम्भ करने का फैसला किया ।
  • अंबालाल साराभाई की बहन अनुसुइया बेन ने इस संघर्ष में गांधीजी को सक्रिय योगदान प्रदान किया। इस अवसर पर उन्होंने एक दैनिक समाचार पत्र का प्रकाशन भी प्रारम्भ किया। गांधीजी के अनशन पर बैठने के फैसले से मजदूरों के उत्साह में वृद्धि हुई तथा उनका संघर्ष तेज हो गया।
  • मजबूर होकर मिल मालिक समझौता करने को तैयार हो गये तथा सारे मामले को एक ट्रिब्यूनल को सौंप दिया गया। जिस मुद्दे को लेकर हड़ताल प्रारम्भ हुई थी, ट्रिब्यूनल के फैसले से वह समाप्त हो गया। ट्रिब्यूनल ने मजदूरों के पक्ष में निर्णय देते हुये मिल मालिकों को 35 प्रतिशत बोनस मजदूरों को भुगतान करने का फैसला सुनाया। गांधीजी की यह दूसरी प्रमुख विजय थी।
खेड़ा सत्याग्रह 1918- प्रथम असहयोग
  • वर्ष 1918 के भीषण दुर्भिक्ष के कारण गुजरात के खेड़ा जिले में पूरी फसल बरबाद हो गयी, फिर भी सरकार ने किसानों से मालगुजारी वसूल करने की प्रक्रिया जारी रखी।
  • ‘राजस्व संहिता’ के अनुसार, यदि फसल का उत्पादन, कुल उत्पाद के एक-चौथाई से भी कम हो तो किसानों का राजस्व पूरी तरह माफ कर दिया जाना चाहिए, किन्तु सरकार ने किसानों का राजस्व माफ करने से इन्कार कर दिया।
  • खेड़ा जिले के युवा अधिवक्ता वल्लभभाई पटेल, इंदुलाल याज्ञिक तथा कई अन्य युवाओं ने गांधीजी के साथ खेड़ा के गांवों का दौरा प्रारम्भ किया। इन्होंने किसानों को लगान न अदा करने की शपथ दिलायी।
  • गांधीजी ने घोषणा की कि यदि सरकार गरीब किसानों का लगान माफ कर दे तो लगान देने में सक्षम किसान स्वेच्छा से अपना लगान अदा कर देंगे। दूसरी ओर सरकार ने लगान वसूलने के लिये दमन का सहारा लिया। कई स्थानों पर किसानों की संपत्ति कुर्क कर ली गयी तथा उनके मवेशियों को जब्त कर लिया गया।
  • इसी बीच सरकार ने अधिकारियों को गुप्त निर्देश दिया कि लगान उन्हीं से वसूला जाये जो लगान दे सकते हैं। इस आदेश से गांधीजी का उद्देश्य पूरा हो गया तथा आंदोलन समाप्त हो गया।
चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा में गांधीजी की उपलब्धियां
  • चम्पारण, अहमदाबाद तथा खेड़ा आन्दोलन ने गांधीजी को संघर्ष के गांधीवादी तरीके ‘सत्याग्रह’ की आजमाने का अवसर दिया।
  • गांधीजी की देश की जनता के करीब आने तथा उसकी समस्यायें समझाने का अवसर मिला।
  • गांधीजी जनता की ताकत तथा कमजोरियों से परिचित हुये तथा उन्हें अपनी रणीनति का मूल्यांकन करने का अवसर मिला।
  • इन आन्दोलनों में गांधीजी को समाज के विभिन्न वर्गों विशेषतया युवा पीढ़ी का भरपूर समर्थन मिला तथा भारतीयों के मध्य उनकी विशिष्ट पहचान कायम हो गयी।
रौलेट एक्ट
  • 1919 का वर्ष भारत के लिये अत्यन्त सोच एवं असंतोष का वर्ष था। देश में फैल रही राष्ट्रीयता की भावना तथा क्रांतिकारी गतिविधियों को कुलचने के लिये ब्रिटेन को पुनः शक्ति की आवश्यकता थी क्योंकि भारत के रक्षा अधिनियम की शक्ति समाप्त प्राय थी।
  • इसी संदर्भ में सरकार ने सर सिडनी रौलेट (Sidney Rowlatt) की नियुक्ति की, जिन्हें इस बात की जांच करनी थी कि भारत में क्रांतिकारी गतिविधियों के माध्यम से सरकार के विरुद्ध षड्यंत्र करने वाले लोग कहां तक फैले हुये हैं और उनसे निपटने के लिये किस प्रकार के कानूनों की आवश्यकता है। इस संबंध में सर सिडनी रौलेट की समिति ने जो सिफारिशें कीं उन्हें ही रौलेट अधिनियम या रौलेट एक्ट के नाम से जाना जाता है।
रौलेट एक्ट के प्रमुख प्रावधान
  • इस एक्ट के अंतर्गत एक विशेष न्यायालय की स्थापना की गयी, जिसमें उच्च न्यायालय के तीन वकील थे। यह न्यायालय ऐसे साक्ष्यों को मान्य कर सकता था, जो विधि के अंतर्गत मान्य नहीं थे।
  • इसके निर्णय के विरुद्ध कहीं भी अपील नहीं की जा सकती थी।
  • न्यायालय द्वारा बनाये गये नियम के अनुसार, प्रांतीय सरकारों को बिना वारंट के तलाशी, गिरफ्तारी तथा बंदी प्रत्यक्षीकरण के अधिकार को रद्द करने आदि की असाधारण शक्तियां दे दी गयीं।
  • युद्ध काल में तो यह विधेयक उचित माना जा सकता था किंतु शांतिकाल में यह पूर्णतया अनुचित था। भारतवासियों ने इस विधेयक को काला कानून कहा तथा इसके विरुद्ध तीव्र प्रतिक्रिया व्यक्त की।
रौलेट एक्ट के विरुद्ध सत्याग्रह-प्रथम जन आन्दोलन
  • विश्व युद्ध की समाप्ति पर, जब भारतीय जनता संवैधानिक सुधारों का इंतजार कर रही थी, ब्रिटिश सरकार ने दमनकारी रौलेट एक्ट को जनता के सम्मुख पेश कर दिया, इसे भारतीयों ने अपना घोर अपमान समझा। अपने पूर्ववर्ती अभियानों से अदम्य व साहसी हो चुके गांधीजी ने फरवरी 1919 में प्रस्तावित रौलेट एक्ट के विरोध में देशव्यापी आंदोलन का आह्वान किया। किन्तु संवैधानिक प्रतिरोध का जब सरकार पर कोई असर नहीं हुआ तो गांधीजी ने सत्याग्रह प्रारम्भ करने का निर्णय किया। एक ‘सत्याग्रह सभा’ गठित की गयी तथा होमरूल लीग के युवा सदस्यों से सम्पर्क कर अंग्रेजी हुकूमत के विरुद्ध संघर्ष करने का निर्णय हुआ। प्रचार कार्य प्रारम्भ हो गया। राष्ट्रव्यापी हड़ताल, उपवास तथा प्रार्थना सभाओं के आयोजन का फैसला किया गया। इसके साथ ही कुछ प्रमुख कानूनों की अवज्ञा तथा गिरफ्तारी देने की योजना भी बनाई गयी।
आन्दोलन के इस मोड़ के लिये कई कारण थे जो निम्नानुसार हैं
  • जन सामान्य को आन्दोलन के लिये एक स्पष्ट दिशा-निर्देश प्राप्त हुआ। अब वे अपनी समस्याओं की केवल मौखिक अभिव्यक्ति के स्थान पर प्रत्यक्ष कार्यवाई कर सकते थे।
  • इसके कारण किसान, शिल्पकार और शहरी निर्धन वर्ग सक्रियता से आंदोलन से जुड़ गया। उनकी यह सक्रियता आगे के आंदोलनों में भी बनी रही।
  • राष्ट्रीय स्वतंत्रता संघर्ष स्थायी रूप से जनसामान्य से सम्बद्ध हो गया। गांधीजी ने स्पष्ट किया कि अनशन की प्रासंगिकता तभी है जब सभी भारतीय जागृत होकर सक्रियता से राजनीतिक प्रक्रिया में सहभागी बनें।
परिणाम
  • सत्याग्रह प्रारम्भ करने के लिये 6 अप्रैल की तारीख तय की गयी। किन्तु तारीख की गलतफहमी के कारण सत्याग्रह प्रारम्भ होने से पहले ही आंदोलन ने हिंसक स्वरूप धारण कर लिया। कलकत्ता, बम्बई, दिल्ली, अहमदाबाद इत्यादि स्थानों में बड़े पैमाने पर हिंसा हुई तथा अंग्रेज-विरोधी प्रदर्शन आयोजित किये गये।
  • प्रथम विश्व-युद्ध के दौरान सरकारी दमन, बलपूर्वक नियुक्तियों तथा कई कारणों से त्रस्त जनता ने पंजाब में हिंसात्मक प्रतिरोध प्रारम्भ कर दिया तथा परिस्थिति अत्यन्त विस्फोटक हो गयीं। अमृतसर और लाहौर में तो स्थिति पर नियंत्रण पाना मुश्किल हो गया। मजबूर होकर सरकार को सेना का सहारा लेना पड़ा। गांधीजी ने पंजाब जाकर यथास्थिति को संभालने का प्रयत्न किया, किन्तु उन्हें बम्बई भेज दिया।
  • 13 अप्रैल 1919 को जलियांवाला बाग हत्याकांड के रूप में अंग्रेजी सरकार का वह बर्बर और घिनौना रूप सामने आया जिसने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में एक रक्तरंजित धब्बा लगा दिया।
जलियांवाला बाग हत्याकांड
  • 13 अप्रैल 1919 को बैशाखी के दिन अमृतसर के जलियांवाला बाग में एक सार्वजनिक सभा का आयोजन किया गया। सभा में भाग लेने वाले अधिकांश लोग आसपास के गांवों से आये हुये ग्रामीण थे, जो सरकार द्वारा शहर में आरोपित प्रतिबंध से बेखबर थे। ये लोग 10 अप्रैल 1919 को सत्याग्रहियों पर गोली चलाने तथा अपने नेताओं डा. सत्यपाल व डा. किचलू को पंजाब से बलात् बाहर भेजे जाने का विरोध कर रहे थे।
  • जनरल डायर ने इस सभा के आयोजन को सरकारी आदेश की अवहेलना समझा तथा सभा स्थल को सशस्त्र सैनिकों के साथ घेर लिया। डायर ने बिना किसी पूर्व चेतावनी के सभा पर गोलियां चलाने का आदेश दे दिया। लोगों पर तब तक गोलियां बरसायी गयीं, जब तक सैनिकों की गोलियां समाप्त नहीं हो गयीं।
परिणाम
  • सभा स्थल के सभी निकास मागों के सैनिकों द्वारा घिरे होने के कारण सभा में सम्मिलित निहत्थे लोग चारों ओर से गोलियों से छलनी होते रहे।
  • इस घटना में 379 लोग मारे गये, जिसमें युवा, महिलायें, बूढ़े, बच्चे सभी शामिल थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड से पूरा देश स्तब्ध रह गया। वहशी क्रूरता ने देश को मौन कर दिया।
  • पूरे देश में बर्बर हत्याकांड की भर्त्सना की गयी।
  • रवीन्द्रनाथ टैगोर ने विरोध स्वरूप अपनी ‘नाइटहुड’ की उपाधि त्याग दी तथा शंकरराम नागर ने वायसराय की कार्यकारिणी से त्यागपत्र दे दिया।
  • अनेक स्थानों पर सत्याग्रहियों ने अहिंसा का मार्ग त्यागकर हिंसा का मार्ग अपनाया, जिससे 18 अप्रैल 1919 को गांधीजी ने अपना सत्याग्रह समाप्त घोषित कर दिया क्योंकि उनके सत्याग्रह में हिंसा का कोई स्थान नहीं था।
  • सरकार ने अत्याचारी अपराधियों को दडित करने के स्थान पर उनका पक्ष लिया। जनरल डायर को सम्मानित किया गया।